भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नई टीम की चर्चा हर जगह है.
नई कैबिनेट में 27 ओबीसी, 12 एससी और 11 महिलाएँ
नई टीम में 41 मंत्री- वकील, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रशासनिक सेवा के अधिकारी और एमबीए हैं
77 मंत्रियों में 36 मंत्री नए हैं यानी लगभग 50 फ़ीसदी
जो बात अब तक बताई नहीं गई और सरकार ने स्वीकार नहीं की, वो इससे बिल्कुल अलग है.
यही वजह है कि चर्चा उन पुरानी टीम के सदस्यों की ज़्यादा है, जिनकी छुट्टी कर दी गई है.
इससे पहले टीम मोदी की औसत उम्र 62 साल थी, जो अब घट कर 58 हो गई है. एक दौर में एनडीए सरकार में ये औसत उम्र 59 साल भी रही थी.
ऐसा भी नहीं कि इससे पहले सरकार में पीएचडी, डॉक्टर, इंजीनियर और एमबीए किए मंत्री नहीं थे.
ये भी सच है कि इससे पहले मनमोहन सरकार में 10 महिलाएँ मंत्री रह चुकी हैं.
तो क्या ये सरकार की छवि सुधारने की कोशिश है या फिर कुछ और. इसलिए सबसे पहले बात कोरोना महामारी की.

विपक्ष लगातार कोरोना प्रबंधन को लेकर मोदी सरकार पर हमलावर रहा है. बुधवार को पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने स्वास्थ्य मंत्री के इस्तीफ़े को कोरोना प्रबंधन की नाकामी से जोड़ा है.
इस सवाल के जवाब में निस्तुला कहतीं है, “सरकार ने बीच राह में खु़द को सुधारने की कोशिश ज़रूर की है. सरकार में ये धारणा किसी की नहीं है कि कोरोना को उन्होंने बहुत बढ़िया तरीक़े से हैंडल किया. सभी को लगता है कि इमेज मैनेजमेंट, परसेप्शन मैनेजमेंट से लेकर लोगों तक अपनी बात पहुँचाने (कम्युनिकेशन) में कई दिक़्क़तें आईं. कुछ फेरबदल कर उन कमियों को स्वीकारते हुए, उन्हें दुरुस्त करने की कोशिश की गई है.”
”लेकिन ये भी सच है कि ऐसी महामारी में कुछ दिक़्क़तें हमेशा रहेंगी. इसलिए पूरा दोष सरकार ने अपने सिर पर एक तरह से नहीं लिया. सरकार को महामारी के साथ-साथ अपने राजनीतिक भविष्य के बारे में भी सोचना था. अगले साल उत्तर प्रदेश और गुजरात जैसे छह राज्यों में विधानसभा चुनाव हैं. साथ ही 2024 का लोकसभा चुनाव भी सामने है.”
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शरद गुप्ता अमर उजाला के राजनीतिक मामलों के संपादक हैं. वो इस मंत्रिमंडल विस्तार को दूसरे नज़रिए से देखते हैं.
वह कहते हैं, “जिस सरकार में सीबीएसई की परीक्षा कैंसल होने का एलान प्रधानमंत्री करते हों और शिक्षा मंत्री से फिर इस्तीफ़ा ले लिया जाता हो. जिस देश में वैक्सीन कब आएगी, कब किसे लगेगी, क्या दवा चाहिए, कब आएगी, कैसे आएगी – इस पर फ़ैसला ख़ुद प्रधानमंत्री करते हों और फिर स्वास्थ्य मंत्री का इस्तीफ़ा हो जाता हो, तो इसका मतलब ये है कि सारा खेल परसेप्शन मैनेजमेंट का है.”
”पीएम मोदी का ये पुराना सिद्धांत है, जब छवि पर आँच आए, तो लोगों को बदल दो. गुजरात में निगम चुनाव से लेकर विधानसभा चुनाव तक उन्होंने यही किया. ऐसा करने से उनको लगता है कि सत्ता विरोधी लहर थोड़ी कम हो जाती है।

हालाँकि कई दूसरे जानकार नई टीम की पूरी क़वायद को इस नज़रिए से भी देखते हैं कि सरकार मोदी-शाह को चलानी है, मंत्री चाहे जो भी हों.
कुछ बड़े मंत्रियों को हटाने के बाद अब नियंत्रण पूरी तरह से पीएमओ के हाथ में ही रहेगा. पहले की स्थिति और अब की स्थिति में कोई विशेष अंतर नहीं है.
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तीसरा अहम संदेश है, जो नई टीम में छिपा है वो है चुनावी राज्यों का जातिगत समीकरण. उत्तर प्रदेश से 7, गुजरात से 5 मंत्रियों को मंत्रिमंडल में जगह की ख़बर हर जगह है.
लेकिन उससे भी बड़ी बात ये है कि ये सभी उत्तर प्रदेश के 7 मंत्री किन-किन इलाक़ों से आते हैं. इनके पीछे का गणित भी ख़ास है.
ये सातों उत्तर प्रदेश के सात अलग-अलग क्षेत्रों से आते हैं, जिनमें शामिल हैं, अवध, बुंदेलखंड, पूर्वांचल, ब्रज, रुहेलखंड और कन्नौज.
उसी तरह गुजरात का प्रतिनिधित्व इस कैबिनेट में और बढ़ा है और जातिगत समीकरण भी एक साथ साधा गया है. वहाँ से दो पटेल और तीन ओबीसी को मंत्री बनाया गया है. अगले साल वहाँ भी चुनाव है.
महाराष्ट्र में नारायण राणे को मंत्रिमंडल में ला कर ये बता दिया कि आगे भी अकेले चुनाव में जाने की तैयारी मोदी सरकार ने कर ली है.
कर्नाटक से भी चार मंत्री बनाए हैं. नई कैबिनेट में 25 मंत्री उत्तर प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, इन पाँच राज्यों से आते हैं. जिनमें से दो राज्यों में अगले साल चुनाव हैं. पाँचों राज्यों से तक़रीबन 200 लोकसभा सीटें आती हैं.
निस्तुला कहती हैं, “27 ओबीसी, 12 एससी और 8 आदिवासी को मंत्रिमंडल में जगह देकर लोगों की इस धारणा को तोड़ा गया है कि बीजेपी सिर्फ़ ऊँची जाति और ब्राह्मण, बनिया की पार्टी है. इससे साफ़ हो गया कि आने वाले चुनाव में वो आगे भी इसी राह पर चलेंगे.”
”साथ ही ये भी समझने की ज़रूरत है कि ये सभी या तो पढ़े-लिखे शिक्षित बैकग्राउंड से हैं या कहीं ना कहीं इनके पास प्रशासिनक अनुभव रहा है या राजनीति का बहुत लंबा अनुभव
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क्या करेगी सरकार ने कृषि कानून पर
चौथा अहम संदेश, जिस पर बहुत कम लोगों की नज़र गई है- वो है कृषि मंत्रालय.
मोदी 2.0 में अब तक की दो बड़ी चुनौती हैं- कोरोना महामारी और किसान आंदोलन.
पिछले सात महीने से देश के कुछ राज्यों के किसान दिल्ली की सीमा पर डटे हैं.
11 राउंड की बातचीत अब तक बेनतीजा रही. गतिरोध दूर करने की सरकार की तरफ़ से कोशिश कामयाब नहीं रहीं.
इस कैबिनेट विस्तार के साथ कुछ जानकार मानते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी ने नरेंद्र सिंह तोमर में पूरा विश्वास जताया है, जिस तरीक़े से उन्होंने पूरे मसले को हैंडल किया है.
निस्तुला कहतीं है कि नरेंद्र सिंह तोमर को कृषि मंत्रालय से ना हटा कर ये संदेश देने की कोशिश की गई है कि कृषि क़ानून पर सरकार का रुख़ अडिग है.
इसके अलावा ये बात नए सहकारिता मंत्रालय में अमित शाह को लाकर और स्पष्ट कर दी गई है कि अब केंद्र सरकार गाँव-गाँव तक सहकारिता का पाठ लेकर जाना चाहती है.
पंजाब में आढ़तियों के सिस्टम को नए कृषि क़ानून से ख़त्म करने की बात थी.
सहकारिता मंत्रालय के ज़रिए सरकार चाहती है कि किसान अपने को-ऑपरेटिव सोसाइटी बनाएँ, अपना माल ख़ुद बेचें. इससे ग्रामीण इलाक़ों में किसानों को संगठित करने में और मदद मिलेगी.
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नई टीम के ज़रिए मोदी सरकार की एक कोशिश थी कि तमाम राजनीतिक दलों में ये संदेश जाए कि ये केवल बीजेपी की सरकार नहीं है, बल्कि एनडीए की सरकार है.
अकाली दल, शिवसेना के निकलने के बाद एक संकेत देने की कोशिश थी कि मोदी सरकार सबको साथ लेकर चलना चाहती है.
लेकिन ऐसा हो नहीं सका.
शरद गुप्ता कहते हैं, “अब तक घटक दलों में से केवल रामदास अठावले ही मंत्री थे. अब अपना दल, एलजेपी और जेडीयू को साथ लिया गया है. लेकिन अपना दल से अनुप्रिया पटेल पहले भी राज्य मंत्री रह चुकी थीं. वापस उनको दोबारा से राज्यमंत्री ही बनाया. अगर मंशा सच में सबको साथ लेने की होती, तो उनको भी कैबिनेट मंत्री बनाया जा सकता था. जेडीयू के आरसीपी सिंह को छोड़कर सबको राज्य मंत्री बनाया है, एआईडीएमके का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है.”
“पशुपति पारस को राम विलास पासवान की जगह वहीं मंत्रालय दे दिया गया है. फ़िलहाल 26 पार्टियाँ एनडीए का हिस्सा हैं, लेकिन उनमें कुछ का ही प्रतिनिधित्व सरकार में है. इसलिए तमाम कोशिशों के बाद भी इसे एनडीए सरकार नहीं कहा जा सकता.”
एक आख़िरी कोशिश भूपेंद्र यादव जैसे विश्वास पात्र को लाकर ये बताने की भी की गई है कि आने वाले दिनों में पर्यावरण भी मोदी सरकार की प्रथामिकता सूची में काफ़ी ऊपर है.